विश्व का एकलौता गुरु द्रोणाचार्य का मंदिर जहां कौरव-पांडवों ने की थी शिक्षा ग्रहण

देश की राजधानी से तकरीबन 70 किलोमीटर दूर एक ऐसी जगह जहां आप पहुंच कर महाभारत से जुड़े अध्याय और आध्यात्मिक दोनों का जीवंत एहसास कर सकेंगे। यह जगह है ग्रेटर नोएडा का छोटा सा कस्बा दनकौर जो कि द्रोण से बना है। मान्यता यह है कि कौरव एवं पांडवों ने इसी गुरुकुल में द्रोणाचार्य से शिक्षा ग्रहण की थी।
 
Guru dronacharya mandir

देश की राजधानी से तकरीबन 70 किलोमीटर दूर एक ऐसी जगह जहां आप पहुंच कर महाभारत से जुड़े अध्याय और आध्यात्मिक दोनों का जीवंत एहसास कर सकेंगे। यह जगह है ग्रेटर नोएडा का छोटा सा कस्बा दनकौर जो कि द्रोण से बना है। मान्यता यह है कि कौरव एवं पांडवों ने इसी गुरुकुल में द्रोणाचार्य से शिक्षा ग्रहण की थी। ग्रेटर नोएडा के दनकौर में सबसे दिलचस्प और खास क्या है उसकी बात करे तो यहां पर गुरु द्रोणाचार्य का मंदिर, स्टेडियम, गौशाला, कई देवी-देवताओं की प्रतिमाएं, प्रवचन कक्ष, रंगशाला और द्रोणाचार्य की एक प्राचीन प्रतिमा है।

महाभारत के आदि पर्व के अध्याय 124 से 27 में भी द्रोण नगरी दनकौर की विशेषताओं के बारे में बताया गया है। दनकौर, यमुना नदी के किनारे पर बसा हुआ है और ग्रेटर नोएडा का दिल कहे जाने वाले परी चौक से लगभग 19 किलोमीटर की दूरी पर है। आप जब यहां पहुंचेंगे तो देखेंगे की महाभारत से जुड़ी तमाम धार्मिक और ऐतिहासिक धरोहर को यह नगरी आज भी संजोए हुए हैं। महाभारत के प्रमुख चरित्र पांडवों और कौरवों के गुरु द्रोणाचार्य की कर्म स्थली दनकौर, प्राचीन ऐतिहासिक नगरी है।

दनकौर का नाम पहले द्रोण नगरी, बाद में धनकौर और अब दनकौर हो गया। ग़ौरतलब है कि पूरे विश्व में गुरु द्रोणाचार्य का सिर्फ एक ही मंदिर है जोकि दनकौर में बना है। मंदिर परिसर में गुरु द्रोणाचार्य की एक मूर्ति भी है जिसके बारे में बताया जब गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को धनुर्विद्या सिखाने से मना कर दिया था तो इस दुर्लभ मूर्ति को भील जाति के राजकुमार एकलव्य ने बनाकर इस प्रतिमा के सामने ही धनुर्विद्या सीखी थी।

यहाँ के लोगों का यह भी कहना है कि गुरु द्रोणाचार्य ने दनकौर में ही एकलव्य से गुरु दक्षिणा के रूप में उनके हाथ का अगुँठा माँगा था एकलव्य ने काटकर दे दिया था। लोगो का ये भी कहना है कि मंदिर के पास आज भी घोड़ों की टॉप की आवाज सुनाई देती है। इतिहासकार बताते है कि गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा जिनके मस्तक पर मणि थी वह अपने पिता के दर्शन करने यहां आते थे। द्रोणाचार्य के मंदिर के परिसर के पास ही द्रोण तालाब प्राचीन काल क्षेत्र से ही आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। 

तालाब के बारे में भी एक मान्यता ये है कि यहां कितनी भी बारिश हो जाए तालाब में भरा पानी 3 दिन में ख़ुद ही सूख जाता है कस्बे में मान्यता है कि प्राचीन काल में एक साधु तालाब से पानी भर रहे थे इसी दौरान उसकी लुटिया तालाब में डूब गई जिससे क्रोधित होकर उन्होंने तालाब को हमेशा सूखे रहने का श्राप दे दिया था।पुरातत्व विभाग ने वर्ष 2013 में प्राचीन मंदिर और तालाब को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया था।

गुरु द्रोणाचार्य को लेकर क्षेत्र और उसके आसपास के लोगों में विशेष आस्था है यहां पर जन्माष्टमी के दौरान एक सप्ताह के मेला भी आयोजन किया जाता है और ज़िला प्रशासन की तरफ़ से आरसी दिन का सार्वजनिक अवकाश भी किया जाता है ये मेला पिछले 9 दशक से लगता आ रहा है।मेले को देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं इसके साथ ही हर महीने गुरु द्रोणाचार्य की लगभग 8 किलोमीटर लंबी विशेष परिक्रमा की जाती है जिसमें आसपास के सैकड़ों गांवों के श्रद्धालु शामिल होते हैं।

रविवार का दिन द्रोण गुरु द्रोण का दिन माना जाता है इसलिए रविवार को प्राचीन मंदिर में गुरु द्रोणाचार्य की प्राचीन मूर्ति का विशेष श्रृंगार और आरती की जाती है।मंदिर प्रांगण के पास ही श्री द्रोण गौशाला स्थापित है जिसमें 1000 गाय का बेहतर ढंग से रखरखाव किया जाता है, यहां द्रोण रंगशाला भी स्थापित है जिसमें धार्मिक व शिक्षा से जुड़े नाटकों का मंचन करके समाज में संदेश दिया जाता है।

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